Unforgettable Indian Heroes

 माधवराव जी मुले

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरकार्यवाह माननीय श्री माधवराव जी मुले की पुण्यतिथि 30 सितंबर को हार्दिक श्रद्धांजलि व शत-शत नमन। संघ निर्माता डॉ हेडगेवार जी के समय के प्रारंभिक प्रचारकों में से थे माननीय माधवराव जी। 1939 में वे प्रचारक बने तथा उन्हें अखंडित पंजाब में संघ कार्य के लिए भिजवाया जहां वे 1947 भारत की आजादी तक रहे। यह समय उनके लिए बड़ी कठिन परीक्षा का समय था। अंग्रेजों की कूटनीति के आधार पर देश के मुस्लिम नेताओं को यह जानकारी हो गई थी कि पश्चिम पंजाब और सिंध पाकिस्तान का हिस्सा होगा। अतः उस क्षेत्र में हिंदुओं पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार होने लगे थे। निरंतर हिंदुओं में भय व्याप्त करने का प्रयास किया जा रहा था। ऐसी स्थिति में संघ कार्य करना, नए नए स्थानों पर शाखाएं खड़ी करना व हिंदू समाज में आत्मविश्वास बनाए रखना सामान्य बात नहीं थी। माधवराव जी ने ऐसी विपरीत स्थिति का मुकाबला करते हुए संघ कार्य को द्रुत गति से बढ़ाया। इसी का परिणाम था कि 1946-47 में विभाजन के समय हिंदुओं के परिवारों एवं उनकी संपत्ति की रक्षा कर पाने में आत्म रक्षा करवा पाने में सफल हो सके। इसी कालखंड में संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी का प्रवास संपूर्ण पंजाब व सिंध में करवाया। कार्यकर्मों में हजारों स्वयंसेवकों व लाखो हिंदुओं की उपस्थिति में कार्यक्रम हुए जिसने हिंदू समाज में आत्मविश्वास पैदा किया। 1947 के बाद माननीय माधवराव जी पंजाब के प्रांत प्रचारक 1959 में उत्तर पश्चिमांचल क्षेत्र प्रचारक जिसमें राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश व जम्मू कश्मीर प्रांत थे। भारतीय जनसंघ की सर्वप्रथम स्थापना डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी के नेतृत्व मैं पंजाब के जालंधर में 27 मई 1951 को हुई । यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि माननीय माधवराव जी के मार्गदर्शन में ही हुआ। 1948 में कश्मीर पर जब कबालियों द्वारा पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय संकट पूर्ण स्थिति में से रास्ता निकालने के लिए रातों-रात माननीय माधवराव जी के मार्गदर्शन में कश्मीर के प्रचारक माननीय बलराज मधोक के नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने हवाई अड्डे का निर्माण कर भारतीय सेना को उतरने की स्थिति बनाई और कश्मीर को बचाया जा सका। 1970 में माननीय माधवराव जी को सह सरकार्यवाह तथा 1973 में सरकार्यवाह बनाया गया। 1975 में देश पर आपातकाल घोषित किया गया व संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ऐसी स्थिति में देश में सत्याग्रह हुआ। माननीय माधवराव जी के नेतृत्व में संघ स्वयंसेवकों ने भी सत्याग्रह में भाग लिया। करीब एक लाख से अधिक सत्याग्रही स्वयंसेवक थे । माननीय माधवराव जी का केंद्र दिल्ली था। दिल्ली में संघ कार्य का बड़ा जबरदस्त विस्तार हुआ ही था परंतु इसके साथ साथ माननीय माधवराव जी का चिंतन ही था कि विदेशों में रहने वाले स्वयंसेवकों से संपर्क बनाकर उन उन देशों में भारतीय स्वयंसेवक संघ नाम से संघ कार्य खड़ा किया। इसका दायित्व दिल्ली झंडेवाला कार्यालय प्रमुख रहे श्री चिमन लाल जी को इस कार्य का दायित्व दिया गया। आज विश्व के करीब 200 से अधिक देशों में संघ कार्य चल रहा है। 1978 में उत्तर पश्चिमांचल क्षेत्र के सभी प्रचारकों को सात दिवसीय वर्ग राजस्थान के उदयपुर में था। उस समय क्षेत्र प्रचारक थे माननीय ब्रह्मदेव जी तथा मैं उदयपुर में विभाग प्रचारक था। इस वर्ग में परम पूजनीय बाला साहब व माननीय माधवराव जी का मार्गदर्शन मिला था। इसी वर्ष 30 सितंबर 1978 में माननीय माधवराव जी का स्वर्गवास मुंबई में हो गया|
बच्छराज जी व्यास
वर्तमान पीढ़ी के बहुत कम लोग माननीय बच्छराज जी व्यास से परिचित होंगे। मूलतः नागौर जिले के डीडवाना के रहने वाले परंतु जन्म से ही नागपुर महाराष्ट्र में रहे। व्यवसाय से एडवोकेट थे। परम पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार जी के समय के स्वयंसेवक व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक माननीय बालासाहेब देवरस के पड़ोसी एवं सहपाठी थे। माननीय बच्छराज जी उत्कृष्ट एवं आसु कवि थे। एक बार नागपुर से सहज चर्चा करते करते एक गीत बना दिया। पंक्तियां है
अटल चुनौती अखिल विश्व को
भला बुरा चाहे जो समझे
डटे हुए हैं राष्ट्र धर्म पर
विपदाओं में सीना ताने।।
माननीय बच्छराज जी राजस्थान के प्रथम प्रांत प्रचारक थे। गृहस्थ एवं वकील थे। उसके उपरांत भी सबको छोड़कर प्रचारक निकले। राजस्थान में संघ कार्य का पौधा रोप कर नागपुर लौटे। लगभग 5 वर्ष राजस्थान में रहे। 1965 में वे भारतीय जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने । उस समय एक दिन के लिए पाली भी पधारे। पाली बांगड़ मिल के मैनेजर श्री मोहन लाल जी गुप्ता उनके सहपाठी व मित्र रहे थे। मैं उन दिनों पाली जिला प्रचारक था।
सहज ही आज उनकी स्मृतियां ताजी हो गई।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
23 जून डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर महामानव को शत शत नमन। अद्वितीय प्रतिभा संपन्न डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी मात्र 34 वर्ष की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप कुलपति बने जो दो कार्यकाल याने 1936 तक रहे। इनके पूज्य पिताजी सर आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे। अंग्रेजी शासनकाल में भी ये बड़े निडर एवं निर्भीक थे इतने कि अंग्रेज अफसर भी इनसे घबराते थे।
डॉक्टर मुखर्जी का शिक्षण काल बड़ा उच्च रहा। प्रत्येक कक्षा में प्रथम श्रेणी के साथ मेरिट में प्रथम स्थान लेकर परीक्षाएं उत्तीर्ण की। 1924 में बैचलर ऑफ लो में प्रथम श्रेणी व मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त किया। कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते समय कलकत्ता विश्वविद्यालय में सिंडिकेट के सदस्य चुने गए। 1927 में इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बने । उस समय देश में एक ही राजनीतिक दल था राष्ट्रीय कांग्रेस। 1924 में कांग्रेस प्रत्याशी बनकर विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए । 1930 में पुनः विधान परिषद में चुने गए। 1938 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से डी. लिट तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर की मानद उपाधि से विभूषित हुए। इसी वर्ष लीग ऑफ नेशंस की बौद्धिक सहयोग समिति में भारतीय प्रतिनिधि नामांकित हुए। 1940 में हिंदू महासभा के अखिल भारतीय कार्यकारी अध्यक्ष बने। 1941 में बंगाल सरकार में वित्त मंत्री बने परंतु 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजी सरकार की दमन नीति के विरोध में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। 1944 में नेशनलिस्ट नामक अंग्रेजी समाचार दैनिक पत्र की स्थापना की। 1945 में आजाद हिंद फौज दिवस पर छात्रों द्वारा अंग्रेज सरकार के विरोध में प्रमुख भूमिका तथा 1946 में विश्वविद्यालय क्षेत्र से बंगाल विधानसभा में निर्वाचित हुए। 1946 में कलकत्ता में सुहरावर्दी के नेतृत्व में मुस्लिमों ने डायरेक्ट एक्शन द्वारा हिंदुओं पर भीषण अत्याचारों के विरोध में आंदोलन किया तथा संपूर्ण बंगाल को भारत में रखा जाए की आवाज बुलंद की और आंदोलन का नेतृत्व किया।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रीमंडल में डॉक्टर मुखर्जी उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बनाए गए । परंतु नेहरू लियाकत समझौते के विरोध में तथा पूर्वी बंगाल से आए हिंदू शरणार्थियों के पुनर्वास के प्रश्न को लेकर डॉक्टर मुखर्जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया तथा हिंदुओं के पुनर्वास में लग गए। डॉक्टर मुखर्जी का स्पष्ट उदघोष था कि हिंदुस्तान हिंदुओं का देश है अतः हिंदू शरणार्थी भारत में नहीं आएंगे तो और कहां जाएंगे। उन्हें शरणार्थी बनाने का पाप हमारे माथे पर हैं क्योंकि हमने भारत विभाजन स्वीकार किया । जो एकदम गलत था। महात्मा गांधी जी ने भी यह कहा था कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा परंतु उन्होंने भी नेहरू एंड कंपनी के दबाव के समक्ष विभाजन स्वीकार कर लिया। 8 अप्रैल 1950 को डॉक्टर मुखर्जी ने संसद में ऐतिहासिक भाषण दिया । उसके बाद 5 मई 1951 को डॉक्टर मुखर्जी ने कलकत्ता में पीपुल्स पार्टी की स्थापना की।
डॉक्टर मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित थे अतः वे हिंदुओं की समस्याओं कोे लेकर सरसंघचालक श्री गुरुजी से मिले । अनेक बार मिलने पर यह निश्चित हुआ की एक सबल सशक्त राजनीतिक दल बनना चाहिए जो देश की अखंडता एवं हिंदुओं की सुरक्षा एवं उनकी आवाज को बुलंद कर सके। 27 मई 1951 को जालंधर में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। अखिल भारतीय स्वरूप बनाने के लिए 20 से 22 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में सम्मेलन हुआ तथा 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की विधिवत घोषणा की गई । पंडित दीनदयाल उपाध्याय अखिल भारतीय महामंत्री बनाए गए। 1952 फरवरी में प्रथम बार लोकसभा का चुनाव लड़ा गया और 3.06 % वोट प्राप्त करने में सफल रहे और देश की राष्ट्रीय पार्टी बन गई। डॉक्टर मुखर्जी ने दक्षिण कलकत्ता से कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रत्याशियों को भारी मतों से पराजित किया । भारतीय जनसंघ के तीन प्रत्याशी लोकसभा में विजयी रहे। डॉक्टर मुखर्जी ने लोकसभा में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चे की स्थापना कर एक सशक्त विपक्ष को खड़ा किया।
दिसम्बर 1952 में भारतीय जनसंघ का प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ जिसमें कश्मीर आंदोलन करने का निर्णय किया। धारा 370 तथा अलग विधान अलग प्रधान और अलग झंडा नहीं चल सकता जबकि जम्मू कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय हो चुका है। सम्पूर्ण देश में भारतीय जन संघ ने आंदोलन किया। शेख अब्दुल्ला के कश्मीर को स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र बनाने के स्वप्न को जबरदस्त झटका लगा। स्वयं डॉक्टर मुखर्जी ने कश्मीर में प्रवेश कर आंदोलन किया। उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। वहीं जेल में रहते हुए डॉक्टर मुखर्जी का देहांत 23 जून 1953 को संदिग्ध परिस्थितियों में हो गया ।
निश्चित रूप से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी असाधारण प्रतिभा संपन्न प्रभावी एवं ओजस्वी वक्ता एवं महान व्यक्तित्व के महामना थे। जीवन भर भारत व भारतीयों के उत्थान व विकास के लिए संघर्ष में समर्पित थे। उनकी प्रतिभा से संपूर्ण देश परिचित होना चाहिए।


सुंदरसिंह जी भंडारी
माननीय सुंदरसिंह जी भंडारी की पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि।
मा. भण्डारीजी 'सादा जीवन उच्च विचार' को अपने जीवन मे अपनाने वाले, मौलिक चिंतक दृढ़ संकल्पी एवं आत्मविश्वास के साथ कार्य करने वाले उत्कृष्ट संगठक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की प्रेरणा से एवं संघ के अखिल भारतीय प्रचारक मा. बाबा साहब आप्टे के प्रयत्नों से मा. पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के कानपुर कॉलेज के सहपाठी सन 1942 में अपने सम्पूर्ण जीवन को आजीवन ब्रम्हचारी रहते हुए मा. भण्डारीजी ने रा. स्व. संघ कार्य की प्रगति के लिए समर्पित कर दिया। पण्डित दीनदयाल जी का प्रचारक जीवन उत्तरप्रदेश से प्रारंभ हुआ तथा उदयपुर निवासी मा. भण्डारीजी का प्रचारक जीवन राजस्थान से प्रारंभ हुआ।
भारतीय जनसंघ के प्रारंभ होने पर मा. भण्डारीजी को राजस्थान प्रदेश का संघठन मंत्री बनाया गया। उस समय मा. भण्डारीजी जोधपुर - बीकानेर के विभाग प्रचारक थे।
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को कोटा के जिला प्रचारक से जनसंघ में लेकर प्रांतीय कार्यालय प्रमुख बनाकर राजनीति में संस्कारित किया। राजस्थान शेरे ठाकुर भैरोसिंह शेखावत एवम अनेक कार्यकर्ताओं का योग्य निर्माण का श्रेय मा. भण्डारीजी को ही है।
अनेक वर्षों तक राजस्थान में कार्य खड़ा करने के बाद मा. भण्डारीजी अखिल भारतीय संघठन मंत्री और फिर भारतीय जनसंघ के महामंत्री के नाते अनेक वर्षों तक दायित्व सम्भाला। इतने उच्च स्थान पर पँहुचने के बाद भी उनमें कहीं भी अहंकार को अपने निकट फटकने नही दिया। जीवन के अंतिम क्षणों में मा. भण्डारीजी ने गुजरात के राज्यपाल रहते हुए इहलोक को अलविदा की।
मेरा सौभाग्य है कि ऐसे महान पुरुष के साथ मेरा भी निकट का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। एक बार पुनः मैं अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

डॉ केशव बलिराम हेडगेवार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत में स्थापना करने वाले आद्य सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की पुण्यतिथि 21 जून 1940 पर शत शत नमन ।
डॉक्टर हेडगेवार ने संघ स्थापना के पूर्व देश में चल रहे क्रांतिकारी कार्यों में भाग लिया। बंगाल में अपने मेडिकल के अध्ययन के दौरान देश के प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ निकट के संबंध बने । नागपुर लौटने के बाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस के आंदोलनों में भाग लिया। आप मध्यभारत कांग्रेस के सहमंत्री अनेक वर्षों तक रहे। कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक सदस्यों में डॉ. हेडगेवार भी एक सदस्य थे।
कहते हैं दही- दूध को मथने पर ही मक्खन निकलता है । समुद्र मंथन से ही अमृत की प्राप्ति हुई थी। इसी प्रकार अंग्रेजी सत्ता से देश को आजाद करने के लिए जितने भी आंदोलन चल रहे थे उन सभी में भाग लेते हुए निकट से देखने पर डॉक्टर हेडगेवार को लगा कि इन आंदोलनों के पीछे हिंदू राष्ट्र का भाव नहीं है। अंग्रेज के कुचक्र में फस कर सभी मुस्लिम तुष्टीकरण में लगे हैं और मुस्लिम नेता अंग्रेजों की सीख में है । अतः जिस आजादी की रीढ़ ही कमजोर हो तो कितने दिन टिकेगी। अतः डॉ हेडगेवार का चिंतन था कि जब तक इस देश के मूल निवासी हिंदू जो इस देश को अपनी मातृभूमि कर्मभूमि और पुण्य भूमि समझकर सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार रहता है, संगठित होकर शक्तिशाली नहीं होगा तब तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी ही रहेगी। इस समुद्र मंथन के पश्चात जो अमृत निकला वह था हिन्दूराष्ट्र के निर्माण के लिए हिंदू समाज का संगठन करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विजयादशमी 1925 को नागपुर में स्थापना। 1940 तक संघ का स्वरूप अखिल भारतीय बना हुआ देखकर परम पूजनीय श्री गुरुजी माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर के मजबूत कंधों पर उत्तरदायित्व देकर डॉ हेडगेवार ने परलोक गमन किया।

बालासाहेब देवरस
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक माननीय बालासाहेब देवरस की पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं।
डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने हिंदू समाज को संगठित, संस्कारित एवं राष्ट्र के लिए संपूर्ण समर्पित करने वाला समाज खड़ा करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की । उन्होंने पुरजोर घोषणा की कि भारत हिंदू राष्ट्र है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरु जी माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर ने संघकार्य को देश के कोने कोने में पहुंचाया। इसका वैचारिक अधिष्ठान खड़ा किया, संघ की सुरक्षा दीवार खड़ी की और सबके समक्ष लक्ष्य रखा कि संघ कार्य को सर्वस्पर्शी सार्वभौम एवं सर्वांगकश बनाने के लिए सिद्ध और सजग होना चाहिए । इसलिए समाज के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन खड़े हुए।
संघ के तृतीय सरसंघचालक माननीय बालासाहेब देवरस के लिए भी परम पूजनीय श्री गुरुजी कहते थे बालासाहेब देवरस डॉ हेडगेवार की प्रतिकृति है । उत्कृष्ट संगठन कुशल एवं कार्य विस्तार के लिए लीक से इतर प्रयोग करने में विश्वास करते थे बालासाहब। संघ को सर्वस्पर्शी बनाने के लिए अनुसूचित जाति जनजाति एवं किसान, मजदूर क्षेत्र में कार्य बढ़ाने के लिए विशेष जोर दिया गया। सेवा भारती जैसा अनुसांघिक कार्य संपूर्ण देश में खड़ा किया और व्यावहारिक रूप से संघ कार्य को सार्वभौम सर्वस्पर्शी कार्य बनाया। आज देश में लगभग सभी क्षेत्रों में संघ अथवा अनुसांघिक कार्य चल रहे हैं इसका श्रेय माननीय बालासाहेब देवरस को ही है।
पूज्य बाला साहब देवरस की पुण्यतिथि पर हम पुनः हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए सभी स्वयंसेवकों से निवेदन करता हूं कि प्रत्येक स्वयंसेवक जहां और जिस क्षेत्र में खड़ा है वहां वह संघ निर्माण करने में निरंतर प्रयासरत रहे तभी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

माननीय ब्रह्मदेव जी
श्री पवन जी अग्रवाल ने आज माननीय ब्रह्मदेव जी की स्मृतियां जागृत कर दी| माननीय ब्रह्मदेव जी को सादर श्रद्धांजलि समर्पित एवं पवन जी को बहुत-बहुत धन्यवाद |
माननीय ब्रह्मदेव जी 1959 में प्रांत प्रचारक बनकर राजस्थान पधारे और मैं उसी वर्ष प्रचारक बनकर सिरोही गया था| मेरा संपूर्ण विकास एवं प्रचारक जीवन के योग्य संस्कार निर्माण में माननीय ब्रह्मदेव जी की प्रमुख भूमिका रही है|
1959 तक राजस्थान में संघ कार्य बहुत छोटा था| प्रचारक भी बहुत कम थे| माननीय ब्रह्मदेव जी का राजस्थान प्रवेश संघ कार्य के लिए अत्यंत शुभ रहा। शाखाओं का बहुत विस्तार हुआ तथा प्रचारको की संख्या भी निरंतर बढ़ती गई| सायम शाखाओं का कार्य विशेष रूप से कॉलेज के विद्यार्थियों में संघ कार्य खूब बढ़ा। प्रचारकों के शिक्षण एवं उनकी प्रत्येक प्रकार की योग्यता का बड़ी सूक्ष्मता एवं गहराई से निर्माण का कार्य माननीय ब्रह्मदेव जी ने बड़ी सावधानी से किया , उसका परिणाम यह हुआ कि राजस्थान ने राजस्थान से बाहर कार्य विस्तार के लिए प्रचारक देने प्रारंभ हुए । 1959 से पूर्व राजस्थान में बाहर से प्रचारक आते थे । परंतु अब वह सिलसिला बंद हो गया । मुझे हरियाणा भेजा, बाद में श्री राजेंद्र जी शर्मा को हरियाणा भेजा, श्री धर्म नारायण जी को महाकौशल एवं श्री नरमोहन जी को मध्य भारत भेजा। एक प्रचारक पंजाब भी गए। माननीय किशन भैया जी असम के सह प्रांत प्रचारक होकर गए थे । आज अखिल भारतीय स्तर पर राजस्थान के अनेक प्रचारक हैं। इनमें माननीय श्री हस्तीमल जी श्री गुणवंत सिंह जी, श्री सुरेश जी, श्री शंकर जी अग्रवाल प्रमुख हैं ।
यह सब माननीय ब्रह्मदेव जी की साधना का ही प्रतिफल है । भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद एवं अनेक विभिन्न गतिविधियों का विकास उनके मार्गदर्शन के कारण राजस्थान में बहुत हुआ।
उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि एवं वे जहां कहीं भी होंगे मुझे विश्वास है उनका आशीर्वाद हमें हमेशा मिलता रहेगा।
डॉक्टर हस्तीमल जी शर्मा
डॉक्टर हस्तीमल जी शर्मा की द्वितीय पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं| डॉक्टर शर्मा जी सेल्फ मेड मैन थे| आपने नौकरी करते हुए अपनी शिक्षा पूर्ण की | आपने एमकॉम, पीएचडी तथा एल. एल. बी. तक शिक्षण लिया। विशेषता यह थी वह शिक्षण काल में हमेशा प्रथम श्रेणी व सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हुए शिक्षा पूरी की। प्रारंभ में आयकर विभाग में आयकर अधिकारी के नाते नौकरी लगी परंतु यह सोच कर कि इस विभाग में रहकर ईमानदारी को बनाए रखना कठिन होगा। अतः उन्होंने कॉलेज शिक्षा में प्राध्यापक बनना अधिक उपयुक्त, सम्मानजनक एवं ईमानदारी का कार्य लगा। यद्यपि आयकर ऑफिसर से वेतन कम था। प्राध्यापक की नौकरी लेकर मन में पूर्ण संतोष था। मुख्य रूप से अकाउंटेंसी पढ़ाते रहे जिसकी विद्यार्थियों में बड़ी छाप थी। ये केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए नहीं बल्कि विषय का आधारभूत ज्ञान छात्र का मजबूत हो, मानकर पढ़ाते रहे।
आप राज. बांगड़ स्नातकोत्तर महाविद्यालय में पाली में अनेक वर्षों तक प्राचार्य रहे। शिक्षा जगत एवं कॉलेज विद्यार्थियों में आपका बड़ा सम्मान था।
सेवानिवृत्त होने के पश्चात आप समाज सेवा कार्य में जुट गये। वरिष्ठ नागरिक परिषद के माध्यम से पाली जिले में कार्य किया । आप पाली जिला के वरिष्ठ नागरिक परिषद के अनेक वर्षों तक अध्यक्ष रहे । वरिष्ठ नागरिक परिषद राजस्थान के आप उपाध्यक्ष भी रहे। वरिष्ठ नागरिकों की सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे । आश्चर्य है कि मृत्यु पूर्व तक प्रति रविवार को वरिष्ठ नागरिक परिषद की होने वाली मीटिंग में आप सक्रिय रहे ।
डॉ. हस्तीमल जी शर्मा से मेरा 1964 से ही बड़ा निकट का संपर्क रहा। प्राय: सप्ताह में दो-तीन बार दोनों में घंटे डेढ़ घंटे तक अनेक विषयों पर चिंतन विचार विमर्श चलता रहता था। उनका अभाव बढ़ा खटकने वाला है। डॉ शर्मा जी अपनी मृत्यु से 1 दिन पूर्व टेंपो लेकर मेरे घर पर पधारे थे, टेंपो से इसलिए कि उनके घुटनों में दर्द रहता था, पुणे से लौटने पर मेरे पड़ोसी ने मुझे यह सूचना दी । दुर्भाग्य से हम घर पर नहीं थे। पूना जा रहे थे और दूसरे दिन श्री गौतम जी यति का फोन गाड़ी में ही मिला कि डॉ हस्तीमल जी शर्मा इहलोक छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान कर गए। मन में अत्यंत पीड़ा हुई । परंतु भगवान की योजना के समक्ष किसका बस चलता है। एक बार पुनः उनकी द्वितीय पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं।
महाराज शिवाजी
आज जेष्ठ शुक्ला त्रयोदशी हिंदूपत पातशाही दिनोत्सव है। सभी हिंदुत्व प्रेमी भारतीयों को बहुत बहुत बधाई एवं अभिनंदन। यह दिवस हमारे लिए गौरव और स्वाभिमान को अनुभव करने वाला दिन है । ऐसे समय में महाराज शिवाजी ने हिंदुत्व की अलख जगाई जब संपूर्ण देश में हिंदू पददलित था। सब प्रकार के अत्याचारों से त्रस्त था। भारतीय नारियां, गो, ब्राह्मण, मंदिर, धार्मिक ग्रंथ असुरक्षित थे। मुगल शहंशाह ने प्रतिदिन सवा मण जनेऊ को जलाने का संकल्प ले रखा था। देश का हिंदू अपने आप को छिपाने का प्रयत्न करता था ऐसी स्थिति में दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी खड़ा हुआ जिसने हिंदुओं के स्वाभिमान को जागृत कर उसे निडरता से जीना सिखाया, आत्मरक्षा करना सिखाया तथा देश धर्म एवं समाज के लिए सर्वस्व त्याग करना सिखाया। छत्रपति शिवाजी ने पुणे को केंद्र बनाकर माता जीजाबाई एवं गुरु दादा कोणदेव से देश भक्ति, शस्त्र एवं शास्त्रों की शिक्षा लेकर अपना संगठन प्रारंभ किया। दक्षिण की दो मुस्लिम रियासतों बीजापुर एवं गोलकुंडा के साथ संपूर्ण भारत में व्याप्त मुगल मुस्लिम सत्ताओ को चुनौती देना आसान नहीं था। इन सब कठिनाइयों के बावजूद अपनी बुद्धि कौशल से राह निकालते हुए हिंदू साम्राज्य की स्थापना की। अपने अध्यात्म गुरु समर्थ रामदास के संपूर्ण महाराष्ट्र में फैले अखाड़ों के युवकों को संगठित कर उन्हें राष्ट्र और धर्म के लिए सर्वस्व त्याग करना सिखाया और उनमें से बाजीराव देशपांडे, वीर तानाजी से अद्भुत पराक्रम वाले वीर निर्माण किए।पूना के आसपास के किले जीतकर शिवाजी ने रायगढ़ में सुदृढ़ किला निर्माण कर अपनी नई राजधानी बनाई। शिवाजी ने बीजापुर गोलकुंडा के तोरण, चाकन, कोंडाणा, पुरंदर, जावली आदि किलों पर अधिकार कर लिया । मुगलों के अहमदनगर के क्षेत्र में धावा बोलकर जुनार से खजाना और घोड़े लुटे। शिवाजी ने 1657 ईस्वी में उत्तरी कोंकण के क्षेत्र कल्याणी, कोलाबा, थाना एवं भिवंडी आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। बीजापुर के परम शक्तिशाली और क्रूर अत्याचारी अफजल खान का 1659 ईस्वी में अपनी योजना में फ़ांस कर वध कर दिया। इससे शिवाजी की शक्ति की धाक संपूर्ण महाराष्ट्र में फैल गई।
शिवाजी ने 1664 में मुगलों के व्यापारिक केंद्र सूरत को 4 दिन तक खूब लूटा बावजूद इसके कि सूरत की रक्षा में मुगलों के 160000 सैनिक वहां पड़े थे। मुगल गवर्नर इनायत खान ने भागकर किले में शरण ली । मराठे सूरत में इस प्रकार घुसे जैसे एक क्रोधित शेर पशुओं के बाड़े में घुसता है।
अद्भुत पराक्रमी एवं बुद्धिमान जयपुर के राजा जयसिंह को शिवाजी ने समझा कर उसमें छिपे राष्ट्र सुरक्षा एवं स्वाधीनता की अलग जगाने का प्रयत्न किया। यहां तक कहा कि विजय यात्रा में मैं तुम्हारे घोड़े की लगाम पकड़कर तुम्हारे साथ चलूंगा - तुम नेतृत्व करो। परंतु सफलता नहीं मिली 1665 में पुरंदर की संधि हुई। शिवाजी औरंगजेब के दरबार में गए। वहां उन्हें कैद कर लिया गया। योजकता एवं बुद्धिमानी से कैद से निकलकर 12 सितंबर 1666 में दक्षिण रायगढ़ पहुंचे और अपना स्वतंत्रता संग्राम तेजी के साथ जारी किया । 1670 से शिवाजी ने मुगलों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया। पुरंदर की संधि में दिए गए किलो को फिर से जीत लिया। 8 मार्च 1670 को पुरंदर, कल्याणी, भिवंडी, माहुली पर फिर से अधिकार कर लिया। 3 अक्टूबर 1670 को सूरत की दूसरी लूट की शिवाजी ने। इसके बाद शिवाजी ने मुगल क्षेत्र के बरार , बगलाना और खान देश पर अधिकार कर लिया। अब मुगल क्षेत्रों से शिवाजी चौथ वसूल करने लगे।
औरंगजेब ने शिवाजी को दबाने के लिए बड़ी भारी सेना सहित महाबत खान, बहादुर खान और दिलेर खान को भेजा परंतु वे असफल होकर मार खाकर लौट आए। 1673 ईस्वी में शिवाजी ने बीजापुर के पन्हाला, सतारा पर अधिकार कर बीजापुर क्षेत्रों में काफी लूटमार की ।
अब चारों और शिवाजी का दबदबा छा गया। उनका मुकाबला करने में बीजापुर, गोलकुंडा एवं मुगल सत्ताएं अपने को असमर्थ अनुभव करने लगी। संपूर्ण मराठा क्षेत्र में हिंदू स्वाभिमान पूर्वक आत्मसम्मान से घूमने लगा ।
15 जून 1674 ईस्वी को बड़ी धूम-धाम से शिवाजी ने छत्रपति धारण कर हिंदू पत पादशाही की स्थापना कर अपना राज्याभिषेक रायगढ़ के किले में करवाया। अपने उद्देश्य प्राप्ति की अत्यधिक प्रसन्नता के कारण समझों अथवा स्वाभाविक रूप से 12 दिन पश्चात माता जीजाबाई की मृत्यु हो गई।
इस कारण शिवाजी ने 4 अक्टूबर 1674 ईस्वी को पूर्ण तांत्रिक विधि से काशी के पंडितों द्वारा अपना राज्याभिषेक दूसरी बार करवाया।
संपूर्ण देश में एक नवीन उत्साह की लहर फैल गई । राजपूताना के मारवाड़ में राठौड़ दुर्गादास, मेवाड़ में महाराणा राजसिंह, बुंदेलखंड में छत्रसाल एवं पंजाब में गुरु गोविंद सिंह जैसे वीर पुरुष इसी राह में खड़े होकर भारतीय स्वाधीनता की अलख जगाने लगे।
शिवाजी ने राज्याभिषेक के बाद मुगल प्रदेशों पर धावा बोलकर दक्षिण के मुगल सूबेदार बहादुर खान के यहां से एक करोड रुपए और 200 घोड़े प्राप्त किए । फरवरी 1675 ईस्वी में शिवाजी ने कोल्हापुर पर अधिकार कर लिया। उसके बाद बीजापुर गोलकुंडा के अनेक स्थानों एवं हैदराबाद को भी लूटा।
1677-78 ईसवी में शिवाजी ने बड़ी चतुराई से सब विरोधियों को एक तरफ रखते हुए कर्नाटक प्रदेश के अधीन जिंजी आदि 100 किलो पर अधिकार कर लिया और तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया।
मुगल शहंशाह औरंगजेब ने अपने मामा शाइस्ता खां को भेजा अचानक रात्रि में शिवाजी ने पूना मुगल कैंप पर हमला किया। शाइस्ता खान ने बड़ी कठिनाई से खिड़की से भागकर अपनी जान तो बचा ली परंतु हाथ की अंगुलियां शिवाजी की तलवार की भेंट चढ गई।
औरंगजेब ने मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह को भी शिवाजी के विरुद्ध भेजा परंतु वह भी असफल होकर लौट आया।
अब शिवाजी दक्षिण में सर्व समर्थ हिंदू महाराजा के रूप में स्थापित हो गए । उनकी शक्ति से पुर्तगाल सरकार भी भय खाती थी। शिवाजी ने अपनी समुद्री शक्ति भी इतनी शक्तिशाली कर ली थी कि यूरोपीय शक्तियां भी उन से टकराने की हिम्मत नहीं करती थी। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में छत्रपति शिवाजी द्वारा जागृत हिंदवा शक्ति निरंतर विकास मान होती रही और 18वीं सदी उत्तरार्ध तक अर्थात 1761 ई. तक संपूर्ण भारत में छा गई। यहां तक कि मुगल सत्ता भी मराठों की दया पर ही निर्भर थी।
1639 ईस्वी में जिस बीज को शिवाजी ने रोपा वह 1761 ईस्वी में विशाल वटवृक्ष बन गया था। छत्रपति शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल 1627 ईस्वी में शिवनेरी के पहाड़ी किले में हुआ था। 13 अप्रैल 1680 में 53 वर्ष की छोटी उम्र में ही उनका स्वर्गवास हो गया।
छत्रपति शिवाजी को हिंदू पत पातशाही की स्थापना एवं विशाल साम्राज्य खड़ा करने में सबसे अधिक सहयोग एवं मार्गदर्शन उनके गुरु समर्थ रामदास से मिला था। शिवाजी के समर्थ होने के बाद एक दिन गुरु रामदास जी शिवाजी के दरबार में पहुंचे और अपनी झोली आगे कर कहा "भिक्षाम् देहि"- शिवाजी गुरु को देखते ही दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़े। गुरु के आशीर्वाद के बाद उठकर एक कागज का पुर्जा उनकी झोली में डाला। समर्थ गुरु ने देखा-उसमें लिखा था-मेरा संपूर्ण साम्राज्य आपके चरणों में समर्पित है। गुरु ने स्वीकारते हुए कहा -ठीक है अब आज से यह साम्राज्य मेरा है। मैं इसे इसकी सुरक्षा के लिए तुम्हें दे रहा हूं। अब तुम इस राज्य के ट्रस्टी हो।
ऐसे महान थे समर्थ गुरु रामदास एवं ऐसे महान थे उनके शिष्य छत्रपति शिवाजी। यह कहावत चल पड़ी -"शिवाजी ना हो तो सुन्नत होती सबकी।"



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